महान दार्शनिक आचार्य रजनीश के जीवन का स्वर्णिम समय सागर में बीता है। ओशो ने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय को अपनी शिक्षा स्थली और सागर को अपनी कर्मस्थली बनाया था। पुराने विश्वविद्यालय की पहाड़ी पर महुआ वृक्ष के नीचे समाधि के दौरान ओशो को संबोधि ज्ञान प्राप्त हुआ था। यह जगह उनके अनुयायियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है, किन्तु सागर के कुछ लोगों को ओशो का मार्ग रास नहीं आया और शनै: शनैः उनसे जुड़ी स्मृतियां और उनके संबोधि स्थल को नष्ट कर दिया गया। दूसरी ओर विश्वविद्यालय में भी ओशो से जुड़ी किसी भी चीज को संरक्षित नहीं किया गया। वर्तमान में शहर में ओशो से जुड़ी ऐसी कोई स्मृति नहीं बची जिस पर सागर के लोग गर्व कर सकें कि इंसान से भगवानतक का सफर तय करने वाले ओशो का कभी सागर से जुड़ाव रहा है।
ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को प्रदेश के गाडरवारा के कुचबाड़ा ग्राम में हुआ था। दस भाई बहनों में सबसे बड़े ओशो के पिता ने उनका नाम रजनीश मोहन जैन रखा था। वे सन 1955 से मा 1957 तक सागर में रहे और डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र की डिग्री ली। महज तीन वर्षो में ओशो ने सागर में ऐसी छाप छोड़ी कि सदियों तक ओशो अनुयायियों के लिए यह भूमि किसी तीर्थ से कम नहीं होती। ओशो को पुराने विश्वविद्यालय अर्थात गंभीरिया की पहाड़ी पर एक महुआ के वृक्ष के नीचे संबोधी ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसे उन्होंने अपनी आत्मकथा में सतोरी नाम दिया है। इसके बाद से ही रजनीश मोहन के आचार्य बनने का सफर शुरू हुआ था। जो आगे जाकर भगवान ओशो पर खत्म हुआ।
आचार्य रजनीश को 1957 में गंभीरिया की पहाड़ी पर जिस महुआ के पेड़ के नीचे सतोरी ज्ञान प्राप्त हुआ था। वहां पर उनके एक कमांडेंट भक्त ने उस जगह को ओशो प्वाइंट का नाम देकर उस महुआ के वृक्ष व चबूतरे को संरक्षित किया था, किन्तु ओशो के समाधि मार्ग को नकारने वाले तथाकथित विरोधियों ने षडयंत्रपूर्वक वृक्ष को काट दिया और उस जगह को नष्ट करने का पूरा प्रयास भी किया।
ओशो से जुड़ी इस ऐतिहासिक विरासत को सहेजने और संरक्षित करने के लिए आज तक कोई आगे नहीं आया,
पूर्व राज्यपाल महावीर भाई ने विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था विश्व का यह एक मात्र विश्वविद्यालय है जहां से भगवान ने शिक्षा ग्रहण की है।उनका इशारा ओशो की ओर ही था
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